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अब एसी छुड़ाएगा पसीने

भरी गर्मी और तपती दोपहरी से बचने के लिए आपने अपने कमरे में लगवाने के लिए नया एसी लिया है लेकिन आप अपना कमरा कितना ठंडा करेंगे इसका फैसला सरकार करेगी। ये सुन आपका चौकना स्वाभाविक है लेकिन सरकार कुछ ऐसा ही करने का मन बना रही है। ऊर्जा मंत्रालय ने एनर्जी बचाने के मकसद से सलाह दी है कि एसी की डिफॉल्ट सेटिंग 24 डिग्री सेल्सियस रखी जाए। ऊर्जा मंत्रालय ने हाल में एयर कंडीशनर बनाने वाली प्रमुख कंपनियों और उनके संगठनों के साथ बैठक में कहा कि वो एसी का डिफॉल्ट तापमान 24 डिग्री तय करें। साथ ही एसी पर ये लेबल भी चस्पा किया जाए कि इस तापमान को सेट करने पर आम जन को आर्थिक और स्वास्थ्य के नजरिये से क्या क्या फायदे हो सकते हैं। हालांकि डिफॉल्ट तापमान यानी 24 डिग्री सेल्सियस को लेकर भी लोगो में संशय है। उनका कहना है कि इस तापमान को बढ़ाया या घटाया नहीं जा सकेगा लेकिन असल में ऐसा है नहीं। मौजूदा समय में ज्यादातर एसी का डिफॉल्ट तापमान 16 से लेकर 18 डिग्री सेल्यिस तक है। ऊर्जा मंत्रालय का दावा है कि अगर इसे बढ़ाकर 24 डिग्री किया जाता है तो इससे 36 फीसदी बिजली बचाई जा सकेगी जोकि हर साल करीब 20 अरब यूनिट क

ओपन आशियाना

वह दो फीट लंबा और मात्र छह इंच चौड़ा छज्जा था जो खिड़की के ऊपर बना था। इसी को अब उसका आशियाना बना दिया गया था। डरा सहमा सा वो खुद को खुद में समेटे अपनी चोंच को इधर उधर करते मां की राह तकता रहता था। मां आती तो वो अपना मुंह खोल उसकी मजबूत चोंच से खाना छीनने की कोशिश करता। मां उसकी बेताबी को भांप जाती। अपनी चोंच से तुरंत उसके मुंह में खाना देती। वो भी चहकता हुआ खा लेता और निकल रहे अपने पंखों को हिलाने की कोशिश करता। मैं और पत्नी गाहे बगाहे बॉलकनी में आते तो सामने के घर के इस छज्जे को देख पल भर रुक जाते थे। दरअसल पड़ोसी ने जब अपने एसी की सर्विस करवाई तो कबतूर का ये घोंसला ठीक विंडो एसी के ऊपर बना था। एसी उतारते समय घोंसला टूट गया तो फिलहाल बच्चे को उस खुले छज्जे पर जगह दे दी गई। अब यही इसका आशियाना था। लेकिन एक डर भी था कही कोई बिल्ली या चील उसे शिकार ना बना ले। चील का डर कम था क्योंकि वो इलाके में यदा कदा ही दिखती थी लेकिन बिल्ली का डर लगातार बना हुआ था। परिवार के सभी सदस्यों की सुबह उठते ही नजर उस छज्जे पर ही जाती थी। उसे वहां मौजूद देख सबके चेहरों पर मुस्कुराहट अपने आप तैर आती थी। धूप

हाथ के हुनर का क्या कहना

“तय तो पचास रुपये हुए थे। अब आप ये तीस दिखा रहे हो। भला ये कोई बात हुई। आप ये तीस भी रख लो। काम करता हूं पक्का। कोई खैरात नहीं मांग रहा हूं। आपको पहले ही बता दिया था कि पॉलिश और सोल की सिलाई के पचास लगेंगे। भाई साहब इस काम को अगर कोई सौ रुपये से कम में कर दे तो मुझे एक पैसा भी मत देना और चार जूते अलग से मार लेना।“ गुस्साए मोची ने एक सांस में उस ग्राहक से सब कह डाला। पास बैठा मैं भी अपने जूते पॉलिश करवाने का इंतजार कर रहा था। बने संवरे उस नौजवान ने पॉलिश और सोल सिलाई के बाद अपने वुडलैंड के लाल जूते पर जहां तहां एक दो टांके और लगाने को कहे। मोची ने चुपचाप लगा दिए लेकिन जब पैसे देने की बारी आई तो कम पकड़ाने लगा। बस मोची का पारा गरम हो गया। मोची को लाल पीला होता देख लड़के ने चुपचाप पचास रुपये उसके हवाले किए और चलता बना। अब मोची ने मेरे जूते हाथ में ले उन पर एक नजर डाली और पूछा “कहां से पॉलिश करवाई थी इससे पहले। जूते का सत्यानाश कर दिया। लाल पॉलिश तो की है, काले सोल पर भी वही पॉलिश मार दी। ऐसे इधर उधर पॉलिश मत करवाया करो। उसने उलहाने वाले स्वर में कहा। लोग पॉलिश का मतलब काला समझते हैं जबकि

मेट्रो में बातों की सवारी

ये लगातार उसकी चौथी कॉल थी। नोएडा से द्वारका की ओर जा रही मेट्रो ट्रेन में वो लगातार ऊंची आवाज में बात कर रहा था। पच्चीस छब्बीस साल के इस नौजवान ने पहले अपने किसी साथी को फोन कर बताया कि वो मेट्रो में बैठ चुका है और सीट भी मिल गई है। सीट चमकती हुई है और एक सीट पर आठ लोग बैठ सकते हैं। उसकी बोल चाल से लग रहा था कि वो ज्यादा पढ़ा लिखा नही है इसलिए मेट्रो का उच्चारण भी मेटरो कर रहा था और रह रहकर बीच बीच में एक दो स्थानीय गाली का इस्तेमाल कर रहा था बावजूद इसके उसके चेहरे पर उत्साह और कॉफिडेंस गजब का था। अपनी बोलचाल से वो वेस्टर्न यूपी के किसी कस्बे का लग रहा था। बड़ा सा अस्त व्यस्त बैकपैक अपनी गोद में लिए वो सीट पर फैल कर बैठा था। शाम के वक्त दफ्तर से घर लौटते मुसाफिरों के कारण मेट्रो खचाखच भरी थी लेकिन इन सब से बेखबर वो अपनी धुन में मस्त था। चार पांच कॉल करने के बाद एक पल वो रूका। अचानक उसे कुछ ध्यान आया और अपने मोबाइल में कुछ तलाशने लगा। अब वो वीडियो कॉल पर था। फेसबुक मैंसेजर में जा वो कहीं वीडियो क़ॉल लगा चुका था। दूसरी तरफ किसी महिला ने फोन उठाय़ा।। बुआ राम राम उसने कहां। “काहा बनायो है

खान साहब का गुड़

चालीस रुपये किलो है। “भाई साहब वो पंजाब, हरियाणा का गुड़ है और ये यूपी का। यूपी का गुड़ अच्छा होता है क्योंकि वहां का गन्ना अलग मिट्टी में होता है, उसने एक सांस में दलील दी। पर गुड़ तो गुड़ है इससे क्या फर्क पड़ता है, मैंने कहा। क्यों नहीं फर्क पड़ता भाई साहब, एक सेब शिमला का होता है और एक कश्मीर का दोनों के दाम में अंतर होता है कि नहीं? उसने चेहरे पर स्माइल लाते हुए एक बार फिर दलील दी। ये बातचीत गुड़ बेचने वाले से हो रही थी। अमूमन दिल्ली और एनसीआर के ज्यादातर इलाकों में गुड़ के सीजन में ट्रैक्टर के साथ ट्रॉली पर कुछ लोग गुड़ बेचने आते हैं। ये सज्जन भी उन्हीं में एक थे। आते जाते इन सज्जन पर नजर पड़ती तो ये गुड़ से भरी ट्रैक्टर ट्रॉली के एक किनारे पर रजाई में पैर दबाए नजर आते। “खुले आसमान के नीचे महज एक पतली रजाई से सर्दी से बच जाते हो?” मैने सवाल किया। भाई साहब हम किसान आदमी है, आदत है। भरी सर्दी में जब लोग रजाई में सोते हैं हम पानी के बीच खडे होकर खेतों में पानी देते हैं। मैं 18 सालों से हर साल यहीं ट्रॉली लगाकर गुड़ बेचता हूं। होली तक ऐसे ही चलता है। एक ट्रैक्टर ट्रॉली को खत्म होन

स्कूल में बाउंसर

पहले मैं चौका। फिर मुझ देखकर बेटा। स्कूल के गेट पर बाउंसर खड़ा था। करीब छह फीट लंबा। हट्टे कट्टे बदन का मालिक। मटमैले कलर का सफारी सूट पहने वो स्कूल आने वाले बच्चों को गेट के अंदर कर रहा था। गेट के एक तरह हमेशा की तरह वर्दीधारी गार्ड था पर गेट के दूसरी तरह खड़ा ये बाउंसर पहली बार दिख रहा था। आमतौर पर बेटे को स्कूल छोड़ने की ड्यूटी पत्नी की होती है पर उस दिन अचानक मुझे जाना पड़ा। मुझे ताज्जुब में देख बेटा बोला। “डैडी इनको तो पन्द्रह दिन हो गए यहां आए हुए। ऐसे अंदर दो और हैं। एक अंदर वाले गेट पर खड़ा रहता है और एक सभी फ्लोर पर घूमता रहता है। ये आंख पर एक घूंसा मार दे तो दिखना बंद हो जाता है।“ मैने पूछा आपको कैसे पता। बोला मैंने टीवी पर फिल्मों में देखा है। खैर बेटे को हमेशा की तरह हैव ए गुड डे बोल गेट के अंदर कर मैं घर लौट आया। सोचा आज स्कूल की छुट्टी होने पर प्रिसिंपल से मिला जाए। स्कूल में प्रिंसिपल से मिलने का समय बच्चों की छुट्टी के बाद फिक्स है। इस सूचना की जानकारी देने के लिए स्कूल के बाहर बाकायदा बोर्ड भी लगा है। स्कूल की छुट्टी होने पर बेटा बाहर आया तो वॉटर बोटल क्लास में ही

पुलिस उसकी सरकार जिसकी

“चौंतीस साल नौकरी को हो गए। सिपाही भर्ती हुआ था और आज भी सिपाही ही हूं। मेरे साथ जो भर्ती हुए थे आज वो इंस्पेक्टर बन गए लेकिन मेरे कंधे पर कोई स्टार नहीं है”। उसने अपने कंधे की ओर देखते हुए तल्खी भरी आवाज में कहा। “मेरी गलती ये है कि मैं ड्राइवर भर्ती हुआ था। यूपी में ड्राइवर को प्रमोशन नहीं है। भले ही मुझे पे स्केल इंस्पेक्टर का मिल रहा है लेकिन साहब ये तो सिर्फ मैं जानता हूं। सलाम तो वर्दी को मिलता है और वर्दी में आज भी सिपाही की ही पहनता हूं।“ बावन साल उम्र का वो खाकी वर्दीधारी आईजी मेरठ का ड्राइवर था। कान के पास कुछ बालों को छोड़ दिया जाए तो बाकी काले थे। आम पुलिसिया लोगों के विपरीत शरीर चुस्त, पेट सामान्य और आखें तेज। चश्मा अभी लगा नही था। बातचीत के लहजे से लग रहा था कि उन्होंने अपनी नौकरी से काफी कुछ सीखा है। आईजी का ये ड्राइवर अचानक हमारे साथ आकर खड़ा हो गया और हमारी बातचीत का हिस्सा बन गया था। तीन घंटे के एग्जाम में बच्चे तो अंदर सेंटर में परीक्षा दे रहे थे लेकिन हम सभी पेरेंट्स बाहर चाय की एक दुकान पर गप्पे मार रहे थे। बात कभी राजनीति की ओर लुढ़क जाती तो कभी देश के विकास पर।